शुक्रवार, 29 मार्च 2013

प्रेम ये मेरा !



क्या कभी जाना ये तुमने
क्या कभी माना ये तुमने
पावन कितना प्रेम मेरा
पागल कितना प्रेम मेरा

आसक्त हृदय विमोहित कुछ
स्नेहिल ह्रदय आशंकित कुछ
स्मित में नित आभासित होता
क्षणिक रुदन में शापित होता
क्या कभी जाना ये तुमने
मोहक कितना ये प्रेम मेरा१


छल नही कोई द्वेष न इसमें
निष्काम कोई ,स्वार्थ न इसमें
अश्रू बहा नित खुश हो जाता
क्यूँ इसे समझ ही नहीं पाता
क्या कभी जाना ये तुमने
कोमल कितना है ये प्रेम मेरा

नाना झंझावातो से लड़ता
आतप,शीत,पावस है सहता
क्षमा ,दया,तप,त्याग सिखाता
भटके कोई राह दिखाता
क्या कभी जाना है ये तुमने
उर्वर धरती सा प्रेम मेरा२

तारो बीच चंदा ये चमके
घटा बीच दामिनी ये दमके
कभी घरजता कभी बरसता
निराश्रित को आश्रय देता
क्या कभी जाना है ये तुमने
धरती सा विस्तृत है मेरा प्रेम

मर्यादा को न विस्मृत करता
उर्मियो मध्य हिचकोले खाता
मझधार भंवर फंस जाता कभी
नौकाए बन पार ले जाता तभी
क्या कभी जाना है ये तुमने
सागर सा गम्भीर मेरा प्रेम

दीपक पर जैसे पतंगा मरता
चंदा से जैसे चकोर करता
बिन जल शफरी तड़फती जैसे
मैं भी करूं तुमसे प्रेम वैसे
क्या कभी जाना है ये तुमने
गंगा सा पावन है ये मेरा प्रेम

क्या कभी जाना है ये तुमने
क्या कभी माना है ये तुमने
पावन कितना ये प्रेम मेरा
पागल कितना ये प्रेम मेरा ...................

दीपिका  "दीप"

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